सत्यनारायण व्रत कथा satyanarayana vart katha

 अध्याय 1 

एक समय प्राणियों के हित चाहने वाले समस्त मुनियों ने परम रमणीक नैमिषारण्य क्षेत्र में मन को प्रसन्न करनेवाली सभा की | उसी समय अति तेजस्वी व्यासजी के शिष्य सूजती शिष्योंगण के सहित हरी नाम स्मरण करते हुए वहां आये | समस्त शास्त्रों को जानने वाले श्रीसूजतजी को आते देख महातेजस्वी शौनकादि मुनिगण खड़े हो गए | सब धर्मो को जाननेवालों में श्रेष्ठ सूतजी तथा परम शौनकादि ऋषि परस्पर शीघ्रता से पृथ्वी पर दण्डवत नमस्कार करके | शौनकादि मुनियों के दिये आसन पर सम्पूर्ण शिष्यों सहित अति बुद्धिमान सूतजी बैठ गये | बैठे हुए सूतजी से शौनकादि मुनियों ने नमस्कार कर हाथ जोड़कर कहा | हे महर्ष , हे सर्वज्ञ सूतजी | इस कलिकाल में मनुष्यों को हरिभक्ति  किस उपाय से  हो ? हे भगवान | वह कहिये, क्योंकि कलिकाल में सब प्राणी पाप करने में तत्पर और वेदविहीन हो जायेंगे | उनका कल्याण किस प्रकार होगा ? इस कलियुग में मनुष्य प्राणों को धारण किये , थोड़ी आयुवाले , निर्धन और अनेक पीड़ा से युक्त होंगे | प्रायः पुण्य अति परिश्रम से होता है | इससे कलियुग में कोई मनुष्य पुण्य न करेगा | और पुण्य के नष्ट होने से सब पापों में प्रवृत्त हो जायेंगे | तब तुच्छ ज्ञानवाले मनुष्य अपने सब वंश सहित नष्ट हो जायेंगे | हे सूतजी | किस तरह अप्ल परिश्रम से थोड़े धन और कुछ ही समय में पुण्य प्राप्त हो ऐसा कोई उपाय हम लोगों से वर्णन कीजिये | जिसके उपदेश से मनुष्य पुण्य , पाप करता है वह उसका भागी होता है | पुण्य का उपदेश करनेवाला , दयावान , कपट रहित , निष्पाप और निर्वीरोधी यह चार तरह के मनुष्य नारायण के समान हैं | संसार में ज्ञानी होकर जो दूसरों को ज्ञान नहीं देता उस पर ज्ञान रूपी परमेश्वर प्रसन्न नहीं होते | जो पुरुष रत्नरूपी ज्ञान से दूसरों को संतोष देते है , उन्हें मनुष्य रूप धारण किये नारायण ही जानें | हे महामते | ऐसा कौन व्रत है , जिसके करने से मनोवान्छित फल प्राप्त हो , वह हम लोगों को सुनने की इच्छा है | हे मानिश्रेष्ठ | आप वेद - वेदांग के ज्ञान होता है , आप जैसा दूसरा कोई वक्ता नहीं दिखता , क्योंकि श्रीवेदव्यासजी के आप शिष्य हैं | सूतजी बोले - हे मुनिश्रेष्ठ | तुम ध्यान हो , तुम्ही वैष्णवों में अग्रगण्य हो | कारण की सब प्राणियों का तुम सदैव हित चाहते हो | हे शौनक | सुनो , मैं आपसे  उस उत्तम व्रत को कहूंगा , जिस व्रत को नारद जी ने लक्ष्मीपति भगवान् से पूछा था और जिस प्रकार भगवान् ने नारदजी से कहा ,

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